गली सुनसान पड़ी हुई है और भयंकर गर्मी ने सबका हाल बेहाल कर रखा है सब छाव की ओट लिए बैठे हुए है लाइट नही आ रही है हाथ में मां के हाथों से बनाया हुआ बेना हमे एक अलग ही सुकून दे रहा है क्योकि आज के राजा हम है है जी हम ही है क्योंकि आज हमारी बारी है हवा खाने की, हम सब आंगन में बैठकर लूडो खेल रहे हैं प्रीति मोनू मै"सोनू" और अखलेश भाई सब की नजर पासे पर टिकी हुई है हर कोई अपनी लूडो की गोटियों पर नजर गड़ाए बैठा हुआ है एक तरह बाहर की तेज गर्मी झुलसाने को तैयार खड़ी है और एक तरफ हम है जो लूडो से नज़र हटाना नही चाहते है लेकिन तभी सुनसान गली में एक साइकिल के चैन की आवाज सुनाई पड़ती है हम सब भागकर गेट की ओर जाते हैं और देखते हैं की गली में एक बूढ़े बाबा साइकिल पर आगे भोपू लगाकर आइसक्रीम बेचने आए हुए हैं स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां पड़ चुकी हैं कोई गांव जाने की और कोई घूमने जाने की तैयारियां कर रहा है लेकिन हम हर साल की भांति इस साल हम अपने गांव नहीं जा रहे हैं क्योंकि अब हमारी दसवीं की पढ़ाई जो शुरू होने वाली है हां भाई हम जो दसवीं कक्षा में जो आ गए हैं बोर्ड के एग्जाम का एक अलग ही डर बना रहता है लेकिन मन का क्या है वह तो मस्ती को परेशान है क्योंकि जून का महीना है अगर हम सब गांव में होते तो आम के पेड़ों के नीचे बागों में खाट बिछा कर लेते मामा नाना के यहां जाते लेकिन यह सब दिल्ली में कहां दिल्ली जिसको लोग दिलवालों की दिल्ली कहते हैं हम उसी दिलवालों की दिल्ली में अपने अरमान दिल में दबाए बैठे हैं पर जैसे ही भोंपू की आवाज सुनी सरपट गेट की ओर दौड़ कर चल दिए एक टक गली में लगाए उन्हीं बाबा को आते हुए देखने लगे लेकिन गेट खुलते ही कुंडी की आवाज के बीच मम्मी की आवाज आती है कहां जा रहे हो और हमारे पांव दरवाजे की चौखट पर रुक कर रह जाते हैं वह भोंपू की आवाज जो दुपहरी में हर किसी को परेशान करती है वह हमें एक अजीब ही सुकून दे रही थी लेकिन मम्मी की आवाज सुन कर बाहर न जाने का एक अलग ही डर बना हुआ है उस डर को जीत में बदल कर हम चुप चाप बाहर निकल चुके है और 2 रुपये में चार आइसक्रीम ले कर अपने आप को एक बादशाह से कम नही समझ रहे है तभी एक आवाज आती है कि चलो चलते है कंचे खेलने ऊंच पर और हमारे कदम मन से भी तेज बढ़ चले जेब मे कंचे ले कर । ऊंच पर कंचे खेलने वालों का हुजूम इकट्ठा था जिसमे हम अपनी साख जमाने निकले थे 40 कंचो के राजा बन कर दांव चलाने लगे भाई का साथ हो तो जीत निश्चित ही रहती है हम भाई मिल कर 40 कंचो को 100 में बदल चुके थे काली जोट खेल कर ही, हमारी खुशी दूसरे खेमे में गम का माहौल बना रही थी जो ज्यादा समय तक न रही अपनी बार मम्मी की आवाज के साथ एक चप्पल उड़ती हुई आई और हमारी बादशाहत का किला ढेर कर दिया , एक बार फिर हमारी कल्ली जोट की जीत का जश्न हमारे विपक्षी मना रहे थे और हम अपने घर की और दौडे जा रहे थे।
MrDubeyJi
Tuesday, June 17, 2025
Friday, September 3, 2021
ऊंची उड़ान "सपनों की"
ऊंची उड़ान "सपनों की"
साल 2021 चल रहा है सितंबर का महीना है पिछले महीने ही हमने भारत का 75 वां स्वतंत्रता दिवस मनाया है एक ऐसी स्वतंत्रता जो जीवन को छोड़ कर किताबो में समिट कर रह गई और भारत का सँविधान कहलाई, चलो छोड़ो ये सब तो बीते जमाने है लेकिन उन्ही जमानो के कोरे पन्नो पर सफेद स्याही से हम अपना भविष्य गढ़ रहे थे ।
कितना बेहतरीन था बचपन न नॉकरी की चिंता न पढ़ाई का बोझ बस एक ही काम खेलना खेलना बस खेलना। लेकिन कहते है ना ग्रहण तो भगवान को भी नही छोड़ता और तो और शनि की साढ़े साती का असर भी सात साल बाद खत्म हो जाता है लेकिन क्या कहें हम तो भगवान स्वरूप थे जैसे ही उम्र की समझ मे पहुँचे स्कूल नामक ग्रहण सवार हो गया जो पूरे 20 सालो तक बना रहा।
हाई स्कूल की पढ़ाई भी करी और इंटर का लिंटर भी डाल आये स्नातक के लिए जोर लगाया और साढ़े साती की भांति उसका असर भी खत्म हो ही गया 2012 में, कद छोटा जरूर था मगर उड़ान ऊँची उड़नी थी बस उसी ऊँची उड़ान की तैयारी करते करते उम्र कर तीसरे पड़ाव में आ चुका हूँ पर साला उड़ान अभी भी बाकी है .....
Monday, July 5, 2021
कागज की नाँव "सपने"
कागज की नाव :-
एक वो समय था जब हम कागज की नाव से बाढ़ के पानी मे अपने सपनो को पार लगाते थे
यूं तो दिल्ली में बाढ़ का इतिहास काफी गहरा रहा है लेकिन वो बाढ़ मेरे जीवन की सबसे बड़ी यादगार है एक तरह लाखो की आबादी पानी मे थी लेकिन हमारे सपने तो पानी के ऊपर चल रहे थे ।
लोग घर गृहस्थी की सुधारने में लगे थे और हम पानी मे अपनी यादों को और सघन बनाने में लगे थे पापा ऑफिस से घुटनों तक पानी मे घर लौट रहे है एक तरफ के लोग बर्तनों से पानी बाहर फैक रहे है और हमारा क्या है हम तो झुंड बना कर अपने सपनो में रमे हुए है एक कॉपी लाई गई पन्नो को अलग किया गया फिर होड़ लग गई कि कौन बढ़िया नाव बनाएगा ।
बस 6 से 7 नावे बन कर तैयार थी पानी मे उतरने को लेकिन उम्र छोटी थी पर सपने बड़े हो चुके थे लगा कि पानी मे नाव बिना नाविक के कैसे चलेगी फिर क्या था शूरु हुई खोज नाविकों को लेकर पानी उतरने से पहले नाव जो उतारनी थी नज़र पड़ी एक और छोटे से छेद में और दिमाग मे घण्टिया बजी और कुछ पानी की बूंदे डाल दी छेद में बस इंतज़ार चल रहा था एक एक कर नाविकों की फ़ौज तैयार थी एक नाव पर एक चींटा बैठा दिया गया अब 7 नावे पानी मे और हमारे सपने आसमान पर थे |
Thursday, April 23, 2020
कटी पतंग "यादे बचपन की"
बचपन की यादें भी क्या खास होती है और जब आप दिल्ली से हो तो क्या कहने अभी उम्र के पहले पड़ाव में है चारो भाइयो में तीसरे नंबर पर ही मेरा नंबर आता है और जब बात पतंग की हो तो 15 अगस्त के दिन देशभक्ति के साथ साथ पतंगों की मस्ती में बीत जाता है पिछले दो साल लगातार 15 अगस्त के दिन बस सुबह सुबह लाल किले पर प्रधानमंत्री जी का भाषण सुनके ही बीत जाता रहा है क्योंकि सुबह से ही आसमान पर काले बादलों ने अपना डेरा बनाया हुआ था तेज हवाओं से लोगो के छत पर लगी चद्दरें तक एक दूसरे की छतों का भ्रमण करने लगी थी।
लेकिन ये साल कुछ अलग ही है इस बार भी हर साल की तरह एक कमरे की छोटी सी छत और 2 चरखरियो के साथ आसमान पर नज़र टिकी हुई है एक भाई कन्ने बांध रहा है मै हवा का बहाव बता रहा हूँ सबसे छोटे सरकार अपना हाफ कच्छा पहने गलियों में मोर्चा संभाले खड़े थे कि किस और से कोई पतंग कट कर आ रही है । कद छोटा है लेकिन सपने तो आसमान छू रहे है पिन्नी की पतंग से गुड्डे को काटने की सोच के साथ हमारी पतंग छत के घेरे से बाहर जा चुकी है बस हवा थोड़ी धीमी है इसलिए मेहनत कुछ ज्यादा ही चल रही है मांजे की सीमा पार हो चुकी है और मेरी पतंग आसमान में फुल गुंडई दिखा रही है कभी दाएं कभी बाएं घूम घूम कर सबके छक्के छुड़ा रही है आखिर छुड़ाए भी क्यो न भाई पतंग किसकी है राम विनय की दुकान हाँ हाँ रामविनय की दुकान से पतंग आई है पापा और भाई से जो भी पैसे मिले सब मिला कर पतंग लाये है और मांझा तो भैया पाण्डा माँजा है ढील और खींच दोनो के साथ सबकी पतंगे काट रहा है बस कमी एक है कि मांझा अपने दायरे से बाहर निकल कर पतंग का पूरा साथ निभा रहा है और अब मसला सद्दी पर आ चुका है पूरी चरखी खाली हो चुकी है पतंग आसमान में अटखेलिया कर रही है तभी पीछे से मुन्ना का काला गुड्डा आ गया अब तेज खींच के साथ पतंग उतार रहे है मैं चरखी लपेट रहा हूँ उतारने के स्पीड काफी तेज है लेकिन अभी भी सद्दी ही हाथों की पकड़ में है हम जोर जोर से चिल्ला रहे है जल्दी उतरो जल्दी उतारो इसी के साथ एक तेज झोंके के साथ हाथ के पास से कुछ गया। ये क्या सद्दी की पकड़ ढीली पड़ चुकी है और हमारी पतंग मांझे के साथ आसमान में हवाओ के साथ बह रही है और उधर के खेमे में आई बो की आवाज एक अजीब से गुस्सा दिला रही है क्योंकि हमारी पतंग अब कट चुकी है ।
Tuesday, April 21, 2020
आई टी "IT " वालो का लॉक डाउन
मैं एक आई टी कर्मचारी हूँ हाँ हाँ मैं ही वो आई टी कर्मचारी हूँ जो सारी कम्पनी के कम्प्यूटर का बोझ उठता हूँ लेकिन उसके बाद भी सबसे निठल्लों में गिना जाता हूँ । लेकिन खुशी इस बात की है की मेरा ही नही ऊपर से लेकर नीचे तक सबका हाल एक जैसा ही है वो चाहे डेस्कटॉप इंजीनियर हो या आई टी मैनेजर ।
चलो छोड़ो ये तो बात हुई आफिस के समय की लेकिन आज कल तो मेरा हाल सबसे बदतर है क्योंकि में एक आई टी कर्मचारी हूँ कोरोना काल मे मै ही कम्पनी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी हूँ निठल्लों की गिनती में मेरा नाम तो आता ही है लेकिन क्या कहे जनाब हमारा हमारे प्रोफेशन से ऐसा नाता ही है लॉक डाउन के चलते आज कल वर्क फ्रॉम होम चल रहा है सुबह उठ कर बैठ जाता हूँ सुबह से शाम तो न जाने कितने पढ़े लिखे अनपढों को अंगुली पकड़ के काम करना सिखाता हूँ छुट्टी का दिन भी फोन पर बिताता हूँ बॉस की गालियां खाता हूं लेकिन सब कुछ होते हुए भी कुछ बोल नही पाता हूँ ।
घर पर रहकर घर के कामों में हाथ बटांता हूँ सब्जियां काटता हूँ दूध लाता हूँ लंच ब्रेक पर बच्चे भी खिलाता हूँ क्योकि में आई टी का विधाता हूँ ।
एक तरफ सब बढ़िया पकवान बनाते है और में मैगी बना कर खाता हूं । लॉक डाउन पर सब परिवार के साथ समय बिता रहे हैं पर मैं क्या बताऊँ भाई इतना सब लिख दिया की अब बोल नही पाता हूँ ।
Sunday, April 19, 2020
भैया जी की बकलोल जिंदगी ।
ई जो लाल गमछे में लाल बादशाह बने दिख रहे है ये है हम बोले तो अभिषेक कुमार दुबे "AD" जन्म 1991 में फैज़ाबाद से 26 किलोमीटर दूर ग्राम टड़िया नंदलाल दुबे के पुरवा में हुआ । ग्राम के नाम से ही लग रहा होगा कि नंद के लाल से कम नही होंगे लेकिन सच्चाई तो सदैव कड़वी होती है ।
जन्म और कर्म दोनो भिन्न होता है और हुआ भी ये ही ।

मैं कल भी बेरोजगार था और आज भी बेरोजगार हूँ ।
माफ करना ऊपर कुछ शब्दों में आपको आपत्ति हो सकती ले लेकिन क्या करूँ शब्द तो और भी थे लेकिन दिल गवाही नही दिया लिखने में ।
Friday, April 17, 2020
17 अप्रैल 2020 लॉकडाउन 2.0 का तीसरा दिन ।
आज सुबह 6:57 आंख तो ऐसे खुली की जैसे कुछ बड़ा ही होगा लेकिन जब समय खराब हो तो दिन की ऐसी तैसी होने निश्चित ही हो जाता है । चाय नास्ता कर तैयार हो गया दिन की बेहतर शुरुवात सोच कर ।
शुक्रवार का दिन सुबह राशि फल पढा तो ऐसा लगा कि आज कुछ अच्छा ही होगा फिर क्या था अच्छे दिन की सोचते सोचते घड़ी सुबह के 11:30 बजा चुकी थी लेकिन घड़ी का क्या है उसका तो काम ही है समय बताना लेकिन पूरा ध्यान तो राशिफल अनुसार बेहतर दिन की तलाश में था । खाना खाया लैपटॉप उठाया और बैठ गया कुछ ज्ञान वर्धन करने कुछ देर तो क्लास देखी और फिर शुरुवात हुई बेहतर दिन की और इसी बेहतर शुरुवात के साथ नींद ने गोद लगाया पुनः आंख खुली तो सूरज अपनी दिशा बदल कर सर पर खड़ा था । विचार हुआ कि क्यो न कुछ और नया किया जाए फिर उठाई बाल्टी , शेम्पू और कपड़ा चल पड़ा मारुति 800 lxi की सफाई में अब सफाई करते करते शाम हो गई और आसमान में काले बादलों ने अपनी दबंगई दिखानी शुरू कर दी कुदरत है इसके आगे तो भगवान ने भी घुटने टेक दिए थे मैं किस खेत की मूली था चुपचाप अंदर आ कर फोन उठाया और आज की सबसे बढ़िया सेल्फी ली और आ गया ब्लॉग लिखने अब मैं ब्लॉग लिख रहा हूँ और अंदर टी वी पर रामायण का पुनः टेलीकास्ट चल रहा है ।
कोरोना काल मे झंड जिंदगी के दिन की शुरुवात अच्छी थी और उसे बेहतर बनाया मौसम और मेरे द्वारा ली गई मेरी सेल्फी ने ।
मज़ा आ गया ।
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